जब भी विकास की बात होती है तो गांव और शहर दोनों के विकास के दावे किए जाते हैं। पर हकीकत यह है कि विकास की दौड़ में गांव हमेशा पीछे ही रह जाते हैं और शहरों में सुविधाओं का जाल बिछ जाता है। गांव अपनी धीमी गति के साथ ऊंघ रहे होते हैं। चारों तरफ सन्नाटा-सा पसरा रहता है। शहरों में विकास की गतिविधियां चलती हैं, तो गांव धीरे-धीरे अपना पारंपरिक स्वरूप खोने लगते हैं। उन्हें पैसे की चमक लुभाने लगती है। पारंपरिक पेशे छोड़ कर लोग शहरों में आधुनिक तकनीक के साथ जुड़ने को ललक उठते हैं। स्मार्ट शहरों की घोषणा के बाद एक बार फिर से गांवों के चेहरे पर उम्मीद की नई रंगत दिखने लगी है।
वर्तमान माहौल में जिसे देखो वही शहर की ओर भागा जा रहा है। विकास और चमक-दमक के नाम पर लोगबाग अपनी जड़ों से उखड़ कर भाग रहे हैं। अपने मन में पल रहे सपनों को लिए-दिए वे सब चल रहे हैं, जो भोर होते ही शहर की ओर रुख करके गांवों से भाग चले थे। शायद यह सोचते हुए कि शहर में सब तरफ खुशहाली मिलेगी। रात का देखा हुआ सपना सच साबित होगा। रात में शहर की रोशनी गांव को और गांव के लोगों को खींचने के लिए पर्याप्त होती है। सपनों की आड़ लिए भोले-भाले लोग शहर की ओर खिंचे चले आते हैं। मगर जब यहां दिन के उजाले में घूमते हैं, अपने होने को खोजते हैं, तब जाकर पता चलता है कि जो सोच कर वे आए थे वह तो कहीं दूर-दूर तक नहीं है। जो है वह उनका सपना नहीं है। सपनों के पंख लगा कर आए लोग समझ नहीं पाते कि क्या करें?
ये स्थितियां गांवों में रह रहे लोगों से छिपी नहीं हैं। शहर की हकीकत परदे के पीछे नहीं है। पैसा कमाने का सपना लिए जो लोग शहरों में आते हैं, उनके संघर्ष और कदम-कदम पर मिलती तकलीफें भी सब जानते हैं। फिर भी लोग सपनों के पीछे शहरों की ओर भाग रहे हैं। विकास की चकाचौंध से वशीभूत होकर ही लोगबाग शहर की ओर भागते रहे हैं। पर विकास के जिन सपनों के बारे में सोच कर वे शहरों में आते हैं, क्या वही विकास वहां देखने को मिलता है या कुछ और? विकास की जिस संभावना और ढांचे को सोच कर लोग आते हैं वह कहां मिलता है? कितना मिलता है? और किस कीमत पर? यह देखना जरूरी है कि रोजी-रोटी के सपने को लेकर लगातार लोग शहर की ओर भाग रहे हैं। पर कितना रोजगार शहरों में है, यह भी विचार करने की जरूरत है। आज विकास की संरचना पर नए सिरे से विचार होना चाहिए।
आजादी के बाद विकास की जो संकल्पना की गई थी, उसमें रोजगार के अवसरों के विकेंद्रीकरण का विचार प्रमुख था। उद्योग-धंधे केवल महानगरों तक सीमित न हों। उन्हें दूर-दराज के इलाकों में स्थापित किया जाए, ताकि उन इलाकों तक अच्छी सड़कें पहुंच सकें, शिक्षा की अच्छी सुविधा उपलब्ध हो सके, स्थानीय लोगों को रोजगार के लिए दूर-दूर शहरों में न भागना पड़े। मगर यह विचार पल्लवित नहीं हो सका। विकास की चकाचौंध महानगरों तक सिमटती गई, जहां रेल और हवाई सेवाओं का संजाल हो, शिक्षा और चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हों। इसका नतीजा यह हुआ है कि दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू जैसे महानगरों में रिहाइशी मकानों, सड़कों पर सुचारू रूप से चलने की मुश्किलें बढ़ती गई हैं।
अगर विकास का पैमाना भागती-दौड़ती जिंदगी हो, बहुमंजिले मकान हों और अच्छी-खासी चौड़ी सड़कों पर दौड़ते वाहन हों या सड़क पार करने के लिए जान की बाजी लगा कर कलाबाजी करनी हो, तो इस तरह बड़े से लेकर छोटे, मंझोले शहरों ने खूब तरक्की की है। पर यह विकास का एक अधूरा चेहरा है। यह हम सबका सपना नहीं हो सकता। आज विकास के जो सपने देखे जा रहे हैं, उनमें गांव कितना है, यह देखना जरूरी है। गांव क्यों बदहाल हो रहे हैं, वहां रोजगार की संभावनाएं पैदा क्यों नहीं हो पा रही हैं, लोग पारंपरिक रोजगार और खेती से विमुख क्यों हो रहे हैं, इन सबका भी आकलन होना चाहिए।
जबकि वैश्विक स्थितियों में हकीकत यह है कि अब विकास के विचार को किसी भी केंद्र से साकार किया जा सकता है। आज जो विकास की संरचना बन रही है वह केवल भागती हुई गति के साथ नहीं, बल्कि एक संजाल की गति से भी निर्धारित हो सकती है। इंटरनेट ने दुनिया को एक गांव में बदल दिया है। कहीं से भी रोजगार को संचालित किया जा सकता है। अब विकास का केंद्र कहीं भी हो सकता है। गांव से लेकर शहर, हर कहीं से विकास के द्वीप को देखा और जांचा जा सकता है। फिर गांवों में क्यों नहीं विकास की ऐसी योजनाएं तैयार की जा रहीं, जिनसे युवाओं को गांवों से जोड़े रखा जा सके, उनका पलायन रोका जा सके। शहरों में ही सारी योजनाएं क्यों आकार पा रही हैं?
आज कुछ भी नया बनाने की जरूरत नहीं है। जो है उसे नए तरीके से देखने की जरूरत है। आज हमारे सोचने का तरीका बदल गया है। विचार के लिए एक केंद्र की जरूरत नहीं है, बल्कि अनंत केंद्रों से जीवन को संचालित किया जा सकता है। किसी एक बंधे-बंधाए जीवन से ही संसार को नहीं समझा जा सकता। अब तो विचार को समझने के लिए हमारे ताने-बाने में अनेक नए केंद्र बन रहे हैं। इन केंद्रों से ही जीवन को समझने की जरूरत है। अब विकास की मनोभूमि को केवल सत्ता के केंद्र से नहीं चलाया जा सकता, बल्कि सत्ता के अलावा भी जीवन के जितने प्रसारण केंद्र हैं, वे अब तकनीक की गति से कार्य कर रहे हैं- इसलिए कहीं से भी तकनीकी गति के साथ चलने और चलाने की कोशिश की जा सकती है।
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विकास के ढांचे में गांव
जब भी विकास की बात होती है तो गांव और शहर दोनों के विकास के दावे किए जाते हैं। पर हकीकत यह है कि विकास की दौड़ में गांव हमेशा पीछे ही रह जाते हैं और शहरों में सुविधाओं..
Written by जनसत्ता
नई दिल्ली
December 2, 2015 10:22:50 pm
विकास के ढांचे में गांव
गांव का एक दृश्य। (Source: Express photo by Debabrata Mohanty)
जब भी विकास की बात होती है तो गांव और शहर दोनों के विकास के दावे किए जाते हैं। पर हकीकत यह है कि विकास की दौड़ में गांव हमेशा पीछे ही रह जाते हैं और शहरों में सुविधाओं का जाल बिछ जाता है। गांव अपनी धीमी गति के साथ ऊंघ रहे होते हैं। चारों तरफ सन्नाटा-सा पसरा रहता है। शहरों में विकास की गतिविधियां चलती हैं, तो गांव धीरे-धीरे अपना पारंपरिक स्वरूप खोने लगते हैं। उन्हें पैसे की चमक लुभाने लगती है। पारंपरिक पेशे छोड़ कर लोग शहरों में आधुनिक तकनीक के साथ जुड़ने को ललक उठते हैं। स्मार्ट शहरों की घोषणा के बाद एक बार फिर से गांवों के चेहरे पर उम्मीद की नई रंगत दिखने लगी है।
वर्तमान माहौल में जिसे देखो वही शहर की ओर भागा जा रहा है। विकास और चमक-दमक के नाम पर लोगबाग अपनी जड़ों से उखड़ कर भाग रहे हैं। अपने मन में पल रहे सपनों को लिए-दिए वे सब चल रहे हैं, जो भोर होते ही शहर की ओर रुख करके गांवों से भाग चले थे। शायद यह सोचते हुए कि शहर में सब तरफ खुशहाली मिलेगी। रात का देखा हुआ सपना सच साबित होगा। रात में शहर की रोशनी गांव को और गांव के लोगों को खींचने के लिए पर्याप्त होती है। सपनों की आड़ लिए भोले-भाले लोग शहर की ओर खिंचे चले आते हैं। मगर जब यहां दिन के उजाले में घूमते हैं, अपने होने को खोजते हैं, तब जाकर पता चलता है कि जो सोच कर वे आए थे वह तो कहीं दूर-दूर तक नहीं है। जो है वह उनका सपना नहीं है। सपनों के पंख लगा कर आए लोग समझ नहीं पाते कि क्या करें?
ये स्थितियां गांवों में रह रहे लोगों से छिपी नहीं हैं। शहर की हकीकत परदे के पीछे नहीं है। पैसा कमाने का सपना लिए जो लोग शहरों में आते हैं, उनके संघर्ष और कदम-कदम पर मिलती तकलीफें भी सब जानते हैं। फिर भी लोग सपनों के पीछे शहरों की ओर भाग रहे हैं। विकास की चकाचौंध से वशीभूत होकर ही लोगबाग शहर की ओर भागते रहे हैं। पर विकास के जिन सपनों के बारे में सोच कर वे शहरों में आते हैं, क्या वही विकास वहां देखने को मिलता है या कुछ और? विकास की जिस संभावना और ढांचे को सोच कर लोग आते हैं वह कहां मिलता है? कितना मिलता है? और किस कीमत पर? यह देखना जरूरी है कि रोजी-रोटी के सपने को लेकर लगातार लोग शहर की ओर भाग रहे हैं। पर कितना रोजगार शहरों में है, यह भी विचार करने की जरूरत है। आज विकास की संरचना पर नए सिरे से विचार होना चाहिए।
आजादी के बाद विकास की जो संकल्पना की गई थी, उसमें रोजगार के अवसरों के विकेंद्रीकरण का विचार प्रमुख था। उद्योग-धंधे केवल महानगरों तक सीमित न हों। उन्हें दूर-दराज के इलाकों में स्थापित किया जाए, ताकि उन इलाकों तक अच्छी सड़कें पहुंच सकें, शिक्षा की अच्छी सुविधा उपलब्ध हो सके, स्थानीय लोगों को रोजगार के लिए दूर-दूर शहरों में न भागना पड़े। मगर यह विचार पल्लवित नहीं हो सका। विकास की चकाचौंध महानगरों तक सिमटती गई, जहां रेल और हवाई सेवाओं का संजाल हो, शिक्षा और चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हों। इसका नतीजा यह हुआ है कि दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू जैसे महानगरों में रिहाइशी मकानों, सड़कों पर सुचारू रूप से चलने की मुश्किलें बढ़ती गई हैं।
अगर विकास का पैमाना भागती-दौड़ती जिंदगी हो, बहुमंजिले मकान हों और अच्छी-खासी चौड़ी सड़कों पर दौड़ते वाहन हों या सड़क पार करने के लिए जान की बाजी लगा कर कलाबाजी करनी हो, तो इस तरह बड़े से लेकर छोटे, मंझोले शहरों ने खूब तरक्की की है। पर यह विकास का एक अधूरा चेहरा है। यह हम सबका सपना नहीं हो सकता। आज विकास के जो सपने देखे जा रहे हैं, उनमें गांव कितना है, यह देखना जरूरी है। गांव क्यों बदहाल हो रहे हैं, वहां रोजगार की संभावनाएं पैदा क्यों नहीं हो पा रही हैं, लोग पारंपरिक रोजगार और खेती से विमुख क्यों हो रहे हैं, इन सबका भी आकलन होना चाहिए।
जबकि वैश्विक स्थितियों में हकीकत यह है कि अब विकास के विचार को किसी भी केंद्र से साकार किया जा सकता है। आज जो विकास की संरचना बन रही है वह केवल भागती हुई गति के साथ नहीं, बल्कि एक संजाल की गति से भी निर्धारित हो सकती है। इंटरनेट ने दुनिया को एक गांव में बदल दिया है। कहीं से भी रोजगार को संचालित किया जा सकता है। अब विकास का केंद्र कहीं भी हो सकता है। गांव से लेकर शहर, हर कहीं से विकास के द्वीप को देखा और जांचा जा सकता है। फिर गांवों में क्यों नहीं विकास की ऐसी योजनाएं तैयार की जा रहीं, जिनसे युवाओं को गांवों से जोड़े रखा जा सके, उनका पलायन रोका जा सके। शहरों में ही सारी योजनाएं क्यों आकार पा रही हैं?
आज कुछ भी नया बनाने की जरूरत नहीं है। जो है उसे नए तरीके से देखने की जरूरत है। आज हमारे सोचने का तरीका बदल गया है। विचार के लिए एक केंद्र की जरूरत नहीं है, बल्कि अनंत केंद्रों से जीवन को संचालित किया जा सकता है। किसी एक बंधे-बंधाए जीवन से ही संसार को नहीं समझा जा सकता। अब तो विचार को समझने के लिए हमारे ताने-बाने में अनेक नए केंद्र बन रहे हैं। इन केंद्रों से ही जीवन को समझने की जरूरत है। अब विकास की मनोभूमि को केवल सत्ता के केंद्र से नहीं चलाया जा सकता, बल्कि सत्ता के अलावा भी जीवन के जितने प्रसारण केंद्र हैं, वे अब तकनीक की गति से कार्य कर रहे हैं- इसलिए कहीं से भी तकनीकी गति के साथ चलने और चलाने की कोशिश की जा सकती है।
अब गांव और कृषि केंद्र को जीवन की गति से जोड़ कर बदलाव के बड़े साधन के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। गांव हों या शहर, सबको अपने विकास में नीति/ मर्यादा/ जीवन के प्रति लगाव और संयम के साथ जीवन का सम्मान भी रखना पड़ता है। गांव हमारे जीवन की सामाजिक धुरी हैं। गांव को छोड़ कर या यों कहें कि गांव की बिना पर कोई भी विकास सार्थक नहीं होगा। गांव के विकास में सामाजिक जीवन का ताना-बाना तो है ही, उसी के साथ गांव स्वस्थ और स्वच्छ भी हैं।
अब हमें अपने विकास की संरचना में बुनियादी परिवर्तन करने की जरूरत महसूस होनी चाहिए जिसमें गांव के आसपास विकास के द्वीप भी जगमग हों। लोग गांवों की ओर चलें। रोजी-रोटी के आकर्षण में शहर की ओर भागना लोगों की मजबूरी होती है। पर जब गांव अपनी सामाजिक जिंदगी और स्वास्थ्य में बेहतर जीवन देंगे और उनके आसपास रोजगार होगा, तो कोई भी गांव से पलायन नहीं करेगा।
अपने घर के करीब जीने और बेहतर ढंग से जीने का संसाधन मिलेगा तो कोई भी दूर क्यों जाना चाहेगाप्त! इस स्थिति में गांव सामाजिकता और रोजगार दोनों के केंद्र होंगे, तो लोगों को अपनी ओर खींचेंगे। वैसे भी भारत का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास कृषि आधारित रहा है, इसलिए यहां लोग स्वभाव से ही गांव के जीवन और ढांचे को पसंद करते हैं। इस क्रम में स्वाभाविक है कि गांव भी बड़े केंद्र बनेंगे। सही मायने में वे जीवन के, विकास के भागीदार बनेंगे। गांव में पूंजी आए तो गांवों का भी विकास और चमक-दमक से रिश्ता हो सकता है। मगर स्थिति यह है कि ग्राम प्रशासन को भ्रष्टाचार की जकड़बंदी से निकालना कठिन बना हुआ है। अगर ग्राम प्रशासन छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में विकास के नए आयाम रचें तो सचमुच विकास का सपना काफी हद तक पूरा हो सकेगा।
अब तकनीकी संजाल के साथ गांव-शहर की दूरी को खत्म करते हुए विकास को ग्रामीण संरचना में लेकर चलने की जरूरत है। गांव, हमारे सामाजिक और नैतिक जीवन की धुरी हैं। गांव के किनारे से सभ्यता और संस्कृति का पाठ हम सदियों से पढ़ते आ रहे हैं। बस विचार की दिशा को मोड़ने की जरूरत है। गांव की ओर रोजगार हो, यह सबसे बड़ा प्रश्न है। कृषि आधारित सपने देखने की जरूरत है। जो पीढ़ी आ रही है उसे कैसे अपने सामाजिक केंद्र गांव की ओर मोड़ा जाए, उन सुविधाओं पर ध्यान देने की जरूरत है।
अब अपनी धारणा और विचार पद्धतियों में बदलाव की जरूरत है। अब हमारी गति केवल पहिए पर निर्भर नहीं है। एक ऐसी दुनिया में आ गए हैं, जहां एक बटन पर हाथ रखते ही हम एक-दूसरे के नजदीक आ जाते हैं। दूरियां अब मायने नहीं रखतीं। कहीं से भी एक-दूसरे को समझ सकते हैं। जीवन को सामाजिक संबंधों के साथ जीते हुए एक-दूसरे से अपने अनुभव का आदान-प्रदान करते हुए जीवन का नया पाठ बुना जा सकता है। इस क्रम में सामाजिकता की एक नई पाठशाला विकसित हो रही है। हम सामाजिक भी हो रहे हैं, तो गांव के निकट आने की जरूरत भी महसूस हो रही है। विकास की प्रक्रिया में जिस तरह शहर घिसट रहे हैं- रुक-रुक कर चल रहे हैं उनकी जगह अब छोटे, मंझोले शहर लेंगे, तो कोई आश्चर्य नहीं। बस जरूरत है तो विकास को सही परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की
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